मुझे लोग मिले यूँ मौसम से
ना वो शातिर थे, ना मैं नादाँ थी
कहते हैं वक़्त की महिमा थी
न वो संग रहे , न वो छोड़ सके
इक नींद खुली और मै तन्हा थी
न मैं बिखरी ही , न मैं जुड़ पाई
इक मूरत सी हर लम्हा थी
तकिये को भिगाकर सोई कभी
बारिश में नहाती रोई कभी
कभी गीली घास में टेहली तो
काली रातों में खोई कभी
खुशियाँ तो यहाँ मेहमाँ सी हैं
इक गम न गया मुझे छोड़ कभी
संग रहा ये तन्हा शामों में
संग रहा ये दिन के शोर में भी
मुझे इश्क सा है अब इस गम से
इसे दिल में बसा कर रखती हूँ
पलकों में ज़माना देख न ले
मुस्कां में छुपा कर रखती हूँ
मेरे रब की मेहर कुछ ऐसी है
मै आज भी लहर की मस्ती हूँ
आँखों में सजाती हूँ सपने
तकिये के तले गम रखती हूँ
-Varu
No comments:
Post a Comment