Tuesday, 6 September 2011

बचपन


खो के जिसको किसी ने ना पाया दोबारा 
ये आँखें मेरी वो जहाँ  ढूँढती हैं 
क़दमों ने गीली माटी पे छोड़े थे जो 
नन्हे बचपन के  प्यारे निशाँ ढूँढती हैं 




ना जाने कहाँ खो गए सारे पलछिन  
पापा के कन्धों पे गुज़रते हुए दिन 
माँ के आँचल में आते ही  सो जाना वो 
मासूमियत की इन्तहां ढूँढती हैं 
खो के जिसको किसी  ने ना पाया दोबारा
ये आँखें मेरी वो जहाँ  ढूँढती हैं




तोतली जुबां से वो  बहाने बनाना 
डर के मारे वो बिस्तर के नीचे छुप जाना 
गीले  हाथों ने बारिश के पानी में जो 
बहाई थी वो कश्तियाँ ढूँढती हैं 
खो  के जिसको किसी ने ना पाया दोबारा
ये आँखें मेरी वो जहाँ  ढूँढती हैं




पानी के बुलबुले को  पकड़ने की चाहत 
पर छूते ही वो फूट जाने की आहट 
मोटी मोटी  आँखों से बरसते वो मोती 
वो दादी का टीका ,वो मंदिर की ज्योति 
वक़्त  के तूफानों में जो बह गई......
नन्हे सपनो की वो बस्तियां ढूँढती  हैं....
खो के जिसको किसी ने ना पाया दोबारा,
ये आँखें मेरी  वो जहां ढूँढती हैं ...




V@ru



No comments:

Post a Comment