हाथों की ओंट से बढती है
कोई रूप निराला लेती है
फिर अग्नि परीक्षा देती है
करती है परीक्षा पार तभी
खुलते हैं जग के द्वार सभी
अपना जीवन भी माटी सा
अग्नि सा है संसार अभी
कभी लिपता है इससे आँगन
कभी खुशबु से झूमे ये मन
पर धूल कहीं बन जाए कभी
और धरती माँ कहलाए कभी
दिखती है ये लाचार कभी
बह जाती है बेकार कभी
पर जब भी बने रब की मूरत
झुकते हैं शीश हज़ार तभी
जितने होते माटी के रंग
उतने ही जीवन के हैं ढंग
कट जाए कभी गुमनामी में
कभी जगमग हो तारों के संग
खुशियों का मिले अम्बार कभी
आंसू की मिले बौछार कभी
पर जो भी मिले रख लो हस कर
कुदरत के हैं उपहार सभी.....:)
-varu

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