Tuesday, 6 September 2011

पंख


पिंजरे में कैद बैठी चिड़िया
देखो के सोच रही है क्या
जब उड़ना नहीं नसीब में तो
क्यों पंख देये मुझको मौला

गिरकर ही तो उठना आएगा
उठकर ही तो संभला जाएगा
ये निघेबान पिंजरा कब तक
मेरे पंखों को जंग लगाएगा

एक दिन तो निकलूंगी बाहर
पाउंगी मैं वो स्वतंत्र  समां
चट्टान तोड़ फूटे झरना
उसे कोई रोक सका है कहाँ

वो कहते हैं इस दुनिया में
हर कदम पे है कोई जाल बिछा
उस जाल के दर से हम नादां
इस जेल में जीते रहेंगे क्या

सोने के पिंजरे में रखकर
वो चाहते हैं मेरा ही भला
पर ख़ुशी के दामन में छिपकर
क्या गम से कोई बच है सका

उस इश के शीश मैं भी है विष
अग्नि में झुलसी थी सीता
पाँच पति भी रक्षा कर न सके
सदियों से बताती है गीता

अपने धर्मो कर्मो को कभी
दुनिया से नहीं मैंने तौला
बस यही सोचती वो चिड़िया
क्यों पंख देये मुझको मौला ....

-varu

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