पिंजरे में कैद बैठी चिड़िया
देखो के सोच रही है क्या
जब उड़ना नहीं नसीब में तो
क्यों पंख देये मुझको मौला
गिरकर ही तो उठना आएगा
उठकर ही तो संभला जाएगा
ये निघेबान पिंजरा कब तक
मेरे पंखों को जंग लगाएगा
एक दिन तो निकलूंगी बाहर
पाउंगी मैं वो स्वतंत्र समां
चट्टान तोड़ फूटे झरना
उसे कोई रोक सका है कहाँ
वो कहते हैं इस दुनिया में
हर कदम पे है कोई जाल बिछा
उस जाल के दर से हम नादां
इस जेल में जीते रहेंगे क्या
सोने के पिंजरे में रखकर
वो चाहते हैं मेरा ही भला
पर ख़ुशी के दामन में छिपकर
क्या गम से कोई बच है सका
उस इश के शीश मैं भी है विष
अग्नि में झुलसी थी सीता
पाँच पति भी रक्षा कर न सके
सदियों से बताती है गीता
अपने धर्मो कर्मो को कभी
दुनिया से नहीं मैंने तौला
बस यही सोचती वो चिड़िया
क्यों पंख देये मुझको मौला ....
-varu
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